कोई भी गलत कदम उठाने व कार्य करने से पहले एक बार जरूर सोचें




6 अगस्त 1945 को जापान पर दो अणु-बम फेंके गये थे, उसमें हिरोशिमा में 78 हजार मनुष्य मरे और 56 हजार घायल हुए थे। नागासाकी में 74 हजार मरे और 77 हजार घायल हुए थे। साढ़े नौ सौ वर्गमील का क्षेत्र पूरी तरह नष्ट हो गया था। इसके अतिरिक्त रेडियो-धर्मी प्रभाव से पीड़ित लोगों की संख्या लाखों तक जा पहुंचती है।



इन अणु-बमों को गिराने के लिए प्रख्यात मेजर इथरली को अपने इस कुकृत्य से भारी आत्म-ग्लानि हुई। पहले वह सोचता था कि इतना बड़ा साहसिक काम करने के लिए उसे जो ‘यश’ मिलेगा, उससे उसे प्रसन्नता होगी, पर वैसा हुआ नहीं। आत्म-प्रताड़ना ने उसे विक्षिप्त बना दिया। वह आत्महत्या करने अथवा आत्मदण्ड पाने के लिए इतना आकुल रहने लगा, मानो इसके अतिरिक्त आत्म-प्रताड़ना के दुःसह-दुःख से बचने का और कोई रास्ता हो ही नहीं सकता।


अन्ततः उसने आत्म-दण्ड का सहारा चुना। कई अपराध किये और बन्दूक लेकर एक दुकान में डाका डालने के लिए घुस पड़ा और पुलिस द्वारा पकड़ा गया और न्यू अर्लियेन्स के जेलखाने में बन्द कर दिया गया। उसने अपनी सफाई देने का कोई प्रयत्न नहीं किया। खुले रहने की अपेक्षा उसने जेल पसन्द की उसके ऊपर सरकार बनाम इथरली नाम से मुकदमा चला। पर उसका मानसिक और शारीरिक सन्तुलन इतना बिगड़ा हुआ था कि अदालत में खड़ा तक न हो सका। जेल से उसे अस्पताल भेजना पड़ा। मानसिक व्याधि ने उसका शेष जीवन नष्ट कर डाला।


नागासाकी [जापान] पर अणुबम गिराने वाले विमान संचालक फ्रेडओलीवी ने अपने मार्मिक-वक्तव्य में कहा—‘‘इस युग की सबसे दर्दनाक, सबसे अमानुषिक और सबसे भयानक घटना का जब भी मैं स्मरण करता हूं तो सिर घूम जाता है और रात-रात भर उसी सोच-विचार में जागना पड़ता है। मुझे हैरत होती है कि विज्ञान ने क्या अजीब परिस्थितियां उत्पन्न कर दीं? जिस कार्य के लिए अनेक नेपोलियन मिलाकर भी कम पड़ते, उसे मुझ जैसे नाचीज व्यक्ति को कर गुजरने में समर्थ बना दिया गया। यह ऐसा भयानक कृत्य था जिसका प्रभाव मनुष्यों पर पीढ़ी दर पीढ़ी तक पड़ता चला जायगा।’’


‘‘हमें कोकुरा पर अणु-बम गिराना था, पर उस दिन वहां घने बादल छाये हुए थे—सो कुछ दीख नहीं पड़ रहा था। अस्तु दूसरे आदेश के अनुसार उसे नागासाकी पर गिराया। जहरीले धुंए का छत्तेदार बादल प्रति मिनट एक मील की चाल से ऊपर उठता हुआ हमने देखा। मेरे मन में इस घड़ी इतनी प्राण-घातक भय की भावना उठी, जितनी मनुष्य के इतिहास में शायद कभी किसी ने अनुभव न की होगी। भागते-भागते हमें अणुतरंगों के एक के बाद एक झटके लगे। जहाज का नियन्त्रण हाथ से छूटते-छूटते बचा और हम किसी प्रकार बाल-बाल बच निकलने में सफल हो गये। एक सेकेण्ड की भी देर हो जाती तो फिर हमारा भी खात्मा ही था। उस दस्ते के हम सब उड़ाका यही अनुभव करते रहे, सिर्फ एक बम ही नहीं गिराया गया है, वरन् एक बड़ी पिशाच-शक्ति को इस विश्व को निगल जाने के लिए छुटल कर दिया गया है। इस घटना को काफी दिन बीत गये, पर आज भी जब मैं आंखें बन्द करता हूं तो महादैत्य जैसी उस दिन की नीली रोशनी अभी भी आसमान में छाई दीखती है, जिसके सामने सूरज बुझती मोमबत्ती जैसा लगता था। ईश्वर न करे, मानव इतिहास में फिर कभी ऐसा भयानक दृश्य देखने को मिले।


‘‘जब मैं अणुबम गिराकर लौटा तो मेरी बूढ़ी मां अत्यधिक दुखी थीं। उनके चेहरे पर कातरता और करुणा बरस रही थी। जैसे ही घर में घुसा तो मां ने कड़ककर पूछा—कैडी, तुम्हारी आत्मा तुम्हें कचोटती नहीं? अपराधी की तरह सिर नीचा किये मैं खड़ा रहा, एक शब्द भी मुंह से निकला नहीं।’’


‘‘वे रात को अक्सर चौंककर उठ बैठतीं और घुटने टेक कर प्रार्थना करती रहतीं—हे भगवान्! मेरे बेटे को क्षमा करना।’’ फ्रेड ओलोवी जीवनभर अपने उस दुषकृत्य के कारण पश्चात्ताप की आग में जलता। हालांकि बम गिराने का निर्णय उसका नहीं था, वह तो विमान चालक का कर्तव्य ही निभा रहा था। तो भी पाप-कर्म में सहभागी होने, मानवता के प्रति नृशंस व्यवहार का साथ देने की सजा उसके भीतर बैठे न्यायाधीश ने उसे दी ही। वह अन्त तक बिलखता ही रहा।


पाप, अहंकार और अत्याचार संसार में आज तक किसी को बुरे कर्मफल से बचा न पाये। रावण का असुरत्व यों मिटा कि उसके सवा दो लाख सदस्यों के परिवार में दीपक जलाने वाला भी कोई न बचा। कंस, दुर्योधन, हिरण्यकशिपु की कहानियां पुरानी पड़ गयीं। हिटलर, सालाजार, चंगेज और सिकन्दर, नेपोलियन जैसे नर-संहारकों को किस प्रकार दुर्दिन देखने पड़े, उनके अन्त कितने भयंकर हुए, यह भी अब अतीत की गाथाओं में जा मिले हैं। नागासाकी पर बम गिराने वाले अमेरिकन वैज्ञानिक फ्रेड ओलोवी और हिरोशिमा के विलेन (खलनायक) सेजर ईथरली का अन्त कितना बुरा हुआ, यह देखकर-सुनकर सैकड़ों लोगों ने अनुभव कर लिया कि संसार संरक्षक के बिना नहीं है। शुभ-अशुभ कर्मों का फल देने वाला न रहा होता, तो संसार में आज जो भी कुछ चहल-पहल, हंसी-खुशी दिखाई दे रही है, वह कभी नष्ट हो चुकी होती।


जलियावाले हत्याकांड की जब तक याद रहेगी तब तक जनरल डायर का डरावना चेहरा भारतीय प्रजा के मस्तिष्क से न उतरेगा। पर बहुत कम लोग जानते होंगे कि डायर को भी अपनी करनी का फल वैसे ही मिला जैसे सहस्रबाहु, खर-दूषण, वृत्रासुर आदि को।


हंटर कमेटी ने उसके कार्यों की सार्वजनिक निन्दा की, उससे उसका मन अशान्त हो उठा। तत्कालीन भारतीय सेनापति ने उसके किये हुए काम को बुरा ठहराकर त्यागपत्र देने का आदेश दिया। फलतः अच्छी खासी नौकरी हाथ से गई, पर इतने भर को नियति की विधि-व्यवस्था नहीं कहा जा सकता। आगे जो हुआ, प्रमाण तो यह है, जो यह बताता है कि मरने के फल विलक्षण और रहस्यपूर्ण ढंग से मिलते हैं।


सन् 1921 में जनरल डायर को पक्षाघात हो गया, उससे उसका आधा शरीर बेकार हो गया। प्रकृति इतने से ही सन्तुष्ट न हुई, फिर उसे गठिया हो गया। उसके मित्र उसका साथ छोड़ गये। चलना-फिरना तक दूभर हो गया। ऐसी ही स्थिति में एक दिन उसके दिमाग की नस फट गई और फिर लाख कोशिशों के बावजूद वह ठीक नहीं हुई। डायर सिसक-सिसक कर तड़प-तड़प कर मर गया। अन्तिम शब्द उसके यह थे—


‘जो अपने को मुझ जैसा चतुर और अहंकारी मानते हैं, जो कुछ भी करते न डरते हैं न लजाते हैं, उनका क्या अन्त हो सकता है? यह किसी को जानना हो तो इन प्रस्तुत क्षणों में मुझसे जान ले।’ डायर का यह स्वगतालाप उसके भीतर बैठे न्यायाधीश का ही निर्णय-वाचन था।


‘‘डा. वारमन विन्सेंट पीले’’ अमेरिका के गिरजों के परामर्शदाता मन्त्री थे और मनोवैज्ञानिक चिकित्सक भी। अपने जीवन में उन्होंने सैकड़ों पीड़ित व्यक्तियों का मानसोपचार किया। विश्लेषण में उन्होंने यह पाया कि रोग-शोक और कुछ नहीं, पूर्व कृत बुरे कर्मों का ही परिणाम होता है। मस्तिष्क में जड़ जमाये हुए काम, क्रोध, लोभ, चोरी के भाव, व्यभिचार आदि शरीर में अपनी सहायक ग्रन्थियों से एक प्रकार का रस (जिसे विष कहना उपयुक्त होगा) स्रावित करते रहते हैं, बीमारियों और व्याधियों का कारण यह स्रावित ही होता है, जिसका मूल व्यक्ति के दुर्भाव, दुर्गुण और दुष्कर्म होते हैं।


कर्मों की गति यद्यपि विचित्र है मानवीय दृष्टि से यह पता लगाना कठिन हो जाता है कि किस पाप का परिपाक कहां जाकर होगा। उसका फल कब मिलेगा। चोरी करने वाले को तत्काल कोई दण्ड नहीं मिलता, व्यभिचार करने वाला उस समय पकड़ में नहीं आता, पर इन कर्मों का फल कालान्तर में प्रकृति जन्य रूप में उसी प्रकार मिलता है, जिस तरह मक्का का फल दो महीने, जौ, गेहूं सात महीने में और अरहर के बीज का दस में। पर प्रत्येक कर्म का फल मिलता अवश्य है।


पूर्वजन्म में किये हुये पाप व्यक्ति को रोग बनकर सताते हैं, इसका उल्लेख आयुर्वेद में आता है कि—‘‘पूर्वजन्म कृतं पापं व्याधि रूपेण पीड़ति’’। आज के भौतिकवादी युग में यह बातें कुछ असम्भाव्य लगती हैं पर अब मनोविज्ञान का एक पक्ष ऐसा भी उभर रहा है, जिसने अनेक तथ्यों की खोज के आधार पर यह मानना प्रारम्भ कर दिया है कि इस जन्म के रोग-शोक पूर्वजन्मों या जीवन के दुष्कर्मों का फल होता है।


अमेरिका में एक बहुत बड़े क्लीनिक डा. सी.डब्लू. लेब हुए हैं। उनके पास एक ऐसा रोगी आया करता था, जो आये दिन एक नये रोग की शिकायत किया करता था। कभी सिर दर्द, कभी डिसेन्टरी, कभी तनाव, कभी थकावट डॉक्टर ने हारकर एक दिन कह दिया—लगता है, तुम कोई ऐसा काम कर रहे हो, जिसके लिए तुम्हें अपनी आत्मा को दबाना पड़ता है। कोई पाप कर रहे हो उसी के कारण तुम्हारे भीतर से रोग फूटते रहते हैं। पहले तो वह इनकार करता रहा पर बाद में उसने स्वीकार किया कि उसका एक भाई किसी दूसरे देश में रहता है। जब पिता जीवित थे तो वे यह व्यवस्था कर गये थे कि उसकी जायदाद का समान भाग दोनों को मिलता रहे पर उक्त सज्जन अपने भाई को थोड़े से डालर भेजते थे शेष स्वयं हड़प कर जाते थे।


जब अपना सारा पाप बयान कर चुके तो उस सज्जन ने बड़ा हल्कापन अनुभव किया, उसी दिन उसने अब तक भाई के हिस्से की जितनी धनराशि थी, वह सब भेज दी साथ में पूर्वकृत पाप के लिये क्षमा भी मांगी। इसके बाद उन्हें किसी शारीरिक पीड़ा ने कष्ट नहीं दिया। इससे क्लेशों, कष्टों के सूक्ष्म आधार स्पष्ट होते हैं।

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