चार दिवसीय लोक आस्था का महापर्व छठ पूजा का हुआ समापन



रिपोर्ट प्रवीण उपाध्याय

दिनांक 20/11/2023

वाराणसी चौबेपुर विकास खंड चिरईगांव स्थित सरसौल बलुआ घाट पर  चार दिवसीय महिला व्रत लोक आस्था का महापर्व छठ पूजा का आज प्रातः सूर्य देव को अर्घ देकर समापन हो गया ।

चार दिवसीय व्रत मे प्रथम दिवस मे नहाय खाय द्वितीय खरना तृतीय सूर्य देव को शाम का अर्घ चतुर्थ सूर्य देव को प्रातः काल अर्घ देकर इस महा पर्व की समापन हो गया है ।

स्थानीय बलुआ घाट को बाल्मीकि कुंड के नाम से भी जान जाता है महर्षि वाल्मीकि जी  कुछ समय तक वहा गंगा टट पर अपना आश्रम बना कर रहते थे व उसी समय मे एक कुए का निर्माण किये थे जोकि कुआ कुछ समय बाद गंगा के रास्ते बदले जाने के नाते कुआ गंगा मे समा गया तथा वहा एक गहरा कुंड बन गया जिसकी गहराई सरकार भी नहीं पता कर पाई बाद मे बलुआ घाट का नया नाम बाल्मीकि कुंड पड़ गया बलुआ घाट  चौबेपुर थाना क्षेत्र सरसौल मे व चंदौली के बलुआ थाना के अंतर्गत आता है यहां गंगा पश्चिम वाहिनी बहती है एव वाराणसी व चंदौली का एक महत्वपूर्ण श्मशान घाट भी है  

छठ पूजा का का महत्व महाभारत काल का भी है

छठ पर्व के बारे में एक कथा और भी है। इस किवदंती के मुताबिक, जब पांडव सारा राजपाठ जुए में हार गए, तब द्रोपदी ने छठ व्रत रखा था। इस व्रत से उनकी मनोकामना पूरी हुई थी और पांडवों को सब कुछ वापस मिल गया। लोक परंपरा के अनुसार, सूर्य देव और छठी मईया का संबंध भाई-बहन का है। इसलिए छठ के मौके पर सूर्य की आराधना फलदायी मानी गई।

तथा पुराणों के अनुसार, प्रियव्रत नामक एक राजा की कोई संतान नहीं थी। इसके लिए उसने हर जतन कर कर डाले, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। तब उस राजा को संतान प्राप्ति के लिए महर्षि कश्यप ने उसे पुत्रयेष्टि यज्ञ करने का परामर्श दिया। यज्ञ के बाद महारानी ने एक पुत्र को जन्म दिया, लेकिन वह मरा पैदा हुआ। राजा के मृत बच्चे की सूचना से पूरे नगर में शोक छा गया। कहा जाता है कि जब राजा मृत बच्चे को दफनाने की तैयारी कर रहे थे, तभी आसमान से एक ज्योतिर्मय विमान धरती पर उतरा। इसमें बैठी देवी ने कहा, 'मैं षष्ठी देवी और विश्व के समस्त बालकों की रक्षिका हूं।' इतना कहकर देवी ने शिशु के मृत शरीर को स्पर्श किया, जिससे वह जीवित हो उठा। इसके बाद से ही राजा ने अपने राज्य में यह त्योहार मनाने की घोषणा कर दी। व रामायण मे भी इसका महत्व अंकित है छठ पूजा की परंपरा कैसे शुरू हुई, इस संदर्भ में कई कथाएं प्रचलित हैं। एक मान्यता के अनुसार, जब राम-सीता 14 साल के वनवास के बाद अयोध्या लौटे थे, तब रावण वध के पाप से मुक्त होने के लिए उन्होंने ऋषि-मुनियों के आदेश पर राजसूर्य यज्ञ करने का फैसला लिया। पूजा के लिए उन्होंने मुग्दल ऋषि को आमंत्रित किया। मुग्दल ऋषि ने मां सीता पर गंगाजल छिड़ककर पवित्र किया और कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को सूर्यदेव की उपासना करने का आदेश दिया। इससे सीता ने मुग्दल ऋषि के आश्रम में रहकर छह दिनों तक सूर्यदेव भगवान की पूजा की थी। सप्तमी को सूर्योदय के समय फिर से अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आशीर्वाद प्राप्त किया था। 

वही परम्परा बिहार से शुरुआत होकर उत्तर प्रदेश,  मध्य प्रदेश, गुजरात , महाराष्ट्र आदि राज्यों उत्तर भारत का प्रमुख पर्व बना हुआ है

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